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सुख और हर्ष
प्रसन्नता
प्रसन्नता : 'प्रकृति' की आनन्दभरी मुस्कान ।
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प्रसन्नतापूर्ण प्रयास : भगवान् की ओर जाने के प्रयास में जो आनन्द मिलता है ।
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मानसिक प्रसन्नता : वह हर चीज में आनन्द लेना जानती है ।
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प्रसन्नतापूर्ण मन और शान्त हृदय रखो । कोई भी चीज तुम्हारी समचित्तता को न डिगा पाये । हर रोज लक्ष्य की ओर स्थिरता से मेरे साथ बढ़ने के लिए आवश्यक प्रगति करो । २१ अक्तूबर, १९३४
सुख
सुखी हृदय : मुस्कुराता हुआ, शान्त, पूरा खुला हुआ, छायारहित ।
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यह कभी न भूलो कि नाटकीय होने की अपेक्षा, चुपचाप प्रसन्न रहकर तुम बहुत ज्यादा सहायक होते हो । ५ अक्तूबर, १९३२ *
१९८ प्रसन्न रहो मेरे वत्स, प्रगति का यह सबसे अधिक निश्चित मार्ग है । १२ अप्रैल, १९३४
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सुख-शान्ति उतनी ही संक्रामक है जितनी उदासी-सच्ची गहरी सुख-शान्ति का संक्रमण लोगों तक पहुंचाने से ज्यादा उपयोगी और कोई चीज नहीं होती । २५ अक्तूबर, १९३४
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खुश रहने की कोशिश करो-तुम तुरन्त दिव्य प्रकाश के निकट होओगे । ११ जुलाई, १९३५
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वस्तुत: सुखी है वह आदमी जो भगवान् से प्रेम करता है क्योंकि भगवान् हमेशा उसके साथ रहते हैं । ७ मार्च, १९३७
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पिछले दिनों इतनी अधिक समस्याएं मेरे सामने रही हैं | पता नहीं, उन्हें हंसी-ख़ुशी कैसे हल किया जाये ?
'स्थायी' और 'सच्चा' सुख पाने का एकमात्र उपाय है 'भागवत कृपा' पर पूर्ण ओर ऐकान्तिक निर्भरता । ११ अक्तूबर, १९४१
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हमेशा अच्छे बने रहो तो तुम हमेशा खुश रहोगे । १३ अक्तूबर, १९५९ *
१९९ हम हमेशा उचित वस्तु करें तो हमेशा शान्त और सुखी रहेंगे । २४ मई, १९५४
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हम अपनी खुशी केवल भगवान् में ही खोजें । ५ जून, १९५४
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जब भगवान् सच्चा आन्तरिक सुख प्रदान करते हैं तो दुनिया की किसी चीज में वह शक्ति नहीं होती जो उसे छीन सके । ५ अक्तुबर, १९५४
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आध्यात्मिक सुख : स्थिर और मुस्कुराता हुआ, कोई चीज उसे क्षुब्ध नहीं कर सकती ।
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हमेशा याद रखो कि तुम जो सुख पाओगे वह उस सुख पर निर्भर होगा जो तुम देते हो । २ जून, १९६३
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तुम जो सुख पाते हो उसकी अपेक्षा तुम जो सुख देते हो वह तुम्हें ज्यादा सुखी बनाता है । ४ जुलाई, १९६५
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अपने सुख के बारे में व्यस्त रहना दुःखी होने का सबसे निश्चित उपाय है ।
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२०० अगर हम अपने सुख को अक्षुण्ण और पवित्र रखना चाहें तो हमें उसकी ओर प्रतिकूल विचारों को आकर्षित न करने पर पूरा ध्यान देना चाहिये ।
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हमेशा सुखी रहना, मेघविहीन और उतार-चढ़ावरहित सुख-अन्य सभी चीजों की अपेक्षा इसे पाना सबसे ज्यादा कठिन है ।
हर्ष
हर्ष तब आता है जब तुम उचित वृत्ति अपनाओ ।
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हर्ष भागवत आदेश का पालन करने से आता है । ६ मई, १९३३
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आध्यात्मिकता का हर्ष : सच्चे प्रयास का पुरस्कार ।
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एक बार तुम्हें आन्तरिक जीवन के हर्ष का चस्का लग जाये तो फिर तुम्हें कभी कोई ओर चीज सन्तुष्ट न करेगी ।
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ऐसा कोई हर्ष नहीं जिसकी तुलना अपने हृदय में शाश्वत 'उपस्थिति' की अनुभूति से की जा सकती हो । ४ जुलाई, १९५४ *
२०१ सम्पूर्ण शान्ति का हर्ष : स्थिर और शान्त । ऐसी मुस्कान जो निराश नहीं करती ।
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हर्ष की पुकार : यह विनम्र होती है और कभी-कदास ही अपनी आवाज सुनाती है ।
परम आनन्द और आनन्द
भगवान् के आगे एक नवजात शिशु के समान होने से बढ़कर कोई आनन्द नहीं है । १९ अक्तूबर, १९५४
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भगवान् का अपरिवर्तनशील 'परम आनन्द' चेतना में अतुलनीय तीव्रताभरी प्रगति की प्रेरक शक्ति के रूप में अनूदित होता है ।
यह शक्ति अत्यन्त बाह्य सत्ता में शान्त और विश्वासपूर्ण संकल्प के रूप में बदल जाती है जिसे कोई बाधा नहीं उलट सकती । २०-२१ अक्तूबर, १९५४
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परम आनन्द को जानना भगवान् को जानना है ।
भगवान् को जानना परम आनन्द को जानना है ।
वे घनिष्ठ और चिरस्थायी रूप में अमिट तादात्म्य के साथ गुंथे हुए है । ३० अगस्त, १९६७
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